Friday, 10 October 2008

मेरी छाया...


हाँ, वो मेरी छाया है...
उसकी ही ऊँगली थामकर मैंने इस दुनिया को पहचाना है
वो ही मेरी परछाई है, मेरा साया है।

चाहे खुशी का लम्हा हो,
या दुःख का हो आलम,
कदम से कदम साथ उसने मेरे मिलाया है।
हाँ, वो ही मेरी परछाई है, मेरा साया है।

पर लगता है डर कभी कभी,
इस काले घने अंधेरे में,
कहीं खो न जाए यह साया,
कहीं अलग न हो जाए ये मुझसे।

पर जहाँ लगता है डर एक और इस बात से,
तोह दूसरी और,
उसके होने से यह डर कम सा होने लगता है,
और झूम उठता है मेरा मन इस बात पर,
की वो ही मेरी परछाई है,
मेरा साया है।

3 comments:

Betuke Khyal said...

ek arse baad itni achhi kavita dikhi hai..bravo !!!!

Rishabh P Nair said...

I like thi$ one.. ..realy good :)

Lucid Dreams said...

@ashwini and rishabh:

Thnkx..