Thursday, 9 October 2008

अस्तित्व की खोज में...



सूख रहा है कीचड,
लगता है भोर हो गई है।
सिमट रही हैं आहटें।
साँसों की लगता है, कुछ पाने की चाहत में
नई आशाओं की किरने उमड़ रही हैं।

उमड़ रहा है एक ज्वार,मेरे अन्दर ही अन्दर।
पर लगता है इस ठण्ड में वो भी सिकुड़ जाएगा।
चाँद पैसों की चाहत में,क्या मेरा भी जीवन ख़त्म हो जाएगा?

लाचार, बेबस लाश की तरह पड़ा हूँ आज,
इस चौखट पर, कई सालों से।
पर फ़िर भी कुछ कर पाने की चाहत,
नही गई है इस दिल से।

दर्पण भी झुटला देता है जिस सच्चाई को,
उसको जी रहा हूँ मैं इतने सालों से।
क्या येही ज़िन्दगी है,जिसकी आस में,
मैं सब कुछ खो,
झोली फैलाये बैठा हूँ,
अपने ही बाप के dar पर...

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